पर्व से जुड़ी परंपरा: ‘प्रहलाद’ का प्रतीक है होली का डंडा इसे रोपने के बाद शुभ कार्यों पर लगता है ब्रेक - News Summed Up

पर्व से जुड़ी परंपरा: ‘प्रहलाद’ का प्रतीक है होली का डंडा इसे रोपने के बाद शुभ कार्यों पर लगता है ब्रेक


Hindi NewsLocalRajasthanJodhpur'Prahlada' Is The Symbol Of Holi's Stick.After Planting It, Auspicious Tasks Break. Ads से है परेशान? बिना Ads खबरों के लिए इनस्टॉल करें दैनिक भास्कर ऐपपर्व से जुड़ी परंपरा: ‘प्रहलाद’ का प्रतीक है होली का डंडा इसे रोपने के बाद शुभ कार्यों पर लगता है ब्रेकजोधपुर 13 घंटे पहलेकॉपी लिंकगांवों में फाल्गुन मास के आरंभ यानी 28 फरवरी व शहर में होली से 7 दिन पहले रोपेंगे डंडाफाल्गुन मास लगने के साथ ही गांवों में होली का डंडा रोप दिया जाएगा। 28 फरवरी को फाल्गुन माह शुरू होगा। इसी दिन ग्रामीण इलाकों में डंडा रोप दिया जाएगा। शहर में होली से सात दिन पहले यानी 21 मार्च को डंडा रोपा जाएगा।यह परंपरा काफी प्राचीन है। ज्योतिषाचार्य पंडित रमेश भोजराज द्विवेदी के अनुसार एक बार होली का डंडा रोपने के बाद शादी, मुकलावे और शुभ कार्यों पर ब्रेक लग जाएगा। इस अवधि में बहन-बेटियों का घर आना भी वर्जित रहता है।होलिका दहन तक डंडे की पूजा का विधान92 वर्षीय बुजुर्ग पंडित मोहनलाल माणकलाव के अनुसार होली का डंडा प्रहलाद के रूप में रोपा जाता है, जिसे होलिका दहन के दौरान बचाया जाता है। दहन के दौरान होलिका की फेरी लगाकर मंगल कामना की जाती है। होलिका दहन तक गांव के ब्राह्मण द्वारा डंडे का पूजन किया जाता है। गांव के हर घर से गोबर के कंडे उस पर चढ़ाए जाते हैं। होलिका दहन से तीन दिन पहले बेर के सूखे पेड़ की डाळी से उसे ढंक दिया जाता है। होलिका दहन के समय पूजन कर डंडे रूपी प्रहलाद को बचाया जाता है।इधर नारनाडी में विधि-विधान से रोपा होली का डंडाकई गांवों में रविवार को होली का डंडा रोपा जाएगा, लेकिन नारनाडी में शुक्रवार को ही डंडा रोप दिया गया। गर्गाचार्य पंडित मोहनलाल गर्ग ने बताया कि सरपंच मदनराम मेघवाल ने गांव के पंच पटेलों के साथ खेजड़ी वृक्ष की सूखी डाली का हाेली के डंडे के रूप में रोपण कर उसका विधि-विधान से पूजन किया। इसी के साथ देवी-देवताओं को होली फाग मनाने का न्यौता दिया जाता है।फाल्गुन में ही गाया है जाता है लूर^होली का डंडा रोपने के साथ ही प्राचीनकाल से चला आ रहा लूर गायन भी शुरू होता है। लूर गायन देशभर में पश्चिमी राजस्थान में विशेष रूप में प्रचलित है। रियासतकाल में श्रमिक व कृषक वर्ग की महिलाओं को कई बिंदुओं पर बोलने का अधिकार नहीं होता था, लेकिन लूर के समय उनको बोलने की छूट थी। सामाजिक मान्यता या स्त्री-पुरुष के संबंध, बेमेल विवाह आदि पर होली का डंडा रोपने पर गीतों के माध्यम से बताया जाता था।-डॉ. महिपाल सिंह राठौड़, एसोसिएट प्रोफेसर और लूर पुस्तक के लेखकधन्य-धान्य व सुख-संपत्ति की कामना से रोपते हैं डंडागर्गाचार्य पंडित मोहनलाल गर्ग के अनुसार होली पर प्रहलाद के रूप में शहरों में सात दिन पहले खेजड़ी के वृक्ष की सूखी डाली को रोपा जाता है। होलिका दहन के बाद उसकी धूणी को लोग साल भर घरों में रखतेे हैं। ऐसी मान्यता है कि धूणी को घर में रखनेे से धन-धान्य और सुख-संपत्ति की कमी नहीं रहती है।श्लीन गायन से भी है जुुड़ावसंगीतकार व श्लील गायन लेखक गोविंद कल्ला के अनुसार पुरुषों के अंदर जो भी बुराई होती है, उसे शब्दों के माध्यम से फाल्गुन मास में बाहर निकाल दिया जाता है। इसीलिए पुरुष फाल्गुन मास में गेर गायन व श्लील गायन करते हैं। ताकि आपसी प्रेम, भाईचारा और मन में किसी भी प्रकार की कुंठा हो तो वो बाहर निकल जाए। इसका होली के डंडे से भी जुड़ाव है।


Source: Dainik Bhaskar February 27, 2021 01:18 UTC



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