Lok Sabha Election 2019 आखिर बिहार की सियासत को महिलाओं से क्यों है परहेजपटना [विकाश चंद्र पाण्डेय]। इतिहास के कुछेक उदाहरणों को दरकिनार कर दें तो जान पड़ता है कि संसदीय राजनीति को बिहार की महिलाओं से जैसे परहेज रहा हो। या तो वे सुनियोजित तरीके से हाशिये पर धकेल दी गईं, या फिर राजनीति की रपटीली राहों से खुद परहेजकर गईं। हकीकत यही है। यहां इतराने के लिए महज एक कारण हो सकता है, पहली लोकसभा में बिहार से तारकेश्वरी सिन्हा और सुषमा सेन का प्रतिनिधित्व।बतौर कांग्रेस उम्मीदवार वे दोनों क्रमश: पटना (पूर्वी) और भागलपुर (दक्षिणी) संसदीय क्षेत्र में पुरुष प्रतिद्वंद्वियों को पराजित कर विजयी हुई थीं। तब राज्य से कुल 55 प्रतिनिधि निर्वाचित हुए थे। दूसरी लोकसभा के चुनाव में भी महिलाओं के लिए गुंजाइश कम रही। अलबत्ता उनकी संख्या दो से बढ़कर पांच हो गई।पहली से 16वीं लोकसभा तक बिहार से कुल 819 सांसद चुने गए, जिनमें महिलाएं महज 60। राष्ट्रीय स्तर पर यह संख्या 625 रही। राष्ट्रीय औसत के अनुपात में बिहार का प्रतिनिधित्व कुछ संतोषजनक कहा जा सकता है, लेकिन 33 फीसद आरक्षण की ख्वाहिश की स्थिति में कमतर।महिलाओं की उम्मीदवारी के आंकड़े 17वीं लोकसभा के लिए भी कोई सुखद तस्वीर पेश नहीं करते। दलगत तैयारी इस तबके को कुछ चुनिंदा सीटों पर समेटे रखने की है, जैसा कि पिछले चुनाव में हुआ था।इतराने का एक आधारआठवीं लोकसभा में स्थिति कुछ सम्मानजनक रही। तब बिहार और झारखंड संयुक्त थे। राज्य में कुल 54 सीटें थीं। आठ पर महिलाएं विजयी रहीं। उन आठ में से सात सीटें आज भी बिहार के खाते में हैं, जबकि लोहरदगाझारखंड के हवाले। संसदीय राजनीति में बिहारी महिलाओं की यह अब तक की सर्वोत्तम उपलब्धि है।उस समय बांका में पहले चंद्रशेखर सिंह जीते थे, लेकिन बाद में हुए उप चुनाव में मनोरमा सिंह विजयी रहीं। उपस्थिति उन्हीं की दर्ज की जा रही है। यहां गौरतलब है कि तब 500 पुरुष सांसदों की तुलना में महिलाओं की संख्या महज 43 थी।कुछ उपलब्धियां झारखंड के हवालेतीसरी लोकसभा का गणित कमोबेश 15वीं के बराबर ही। सहरसा में दोहरी उम्मीदवारी और झारखंड साथ में। विजयी महिलाएं सात। उन सभी को एकल प्रतिनिधित्व वाली संसदीय क्षेत्रों में जीत मिली थी। आज उनमें से पांच सीटें बिहार में हैं और दो झारखंड के खाते में।उसके बाद संख्या बल के लिहाज से नंबर आता है सातवीं लोकसभा का। महिलाओं द्वारा जीती गई छह सीटों में से बेगूसराय, पूर्णिया, शिवहर और वैशाली आज भी बिहार के पास हैं। दो सीटें (लोहरदगा और पलामू) झारखंड के हिस्से में।दूसरी ओर 15वीं लोकसभा का गणित एक-दूसरे की तुलना में इसलिए बराबर नहीं कहा जा सकता, क्योंकि 1957 में सीटों की संख्या अधिक थी और विजयी महिलाएं महज पांच। अधिक सीटों की वजह किन्हीं क्षेत्रों में दोहरी उम्मीदवारी और बिहार-झारखंड का संयुक्त होना था।सबसे उदास तस्वीरसबसे उदास तस्वीर पांचवीं और छठी लोकसभा की रही। पांचवीं लोकसभा में कुल 28 महिला सांसदों (4.25 प्रतिशत) के बीच बिहार का प्रतिनिधित्व महज एक, जबकि छठी लोकसभा में प्रदेश से एक भी महिला प्रतिनिधि नहीं। राष्ट्रीय स्तर पर भी महिलाओं का सबसे कमजोर प्रतिनिधित्व, संसद में महज 3.50प्रतिशत की हिस्सेदारी। तब बतौर मतदाता उनकी संख्या 48 फीसद थी। जाहिर है कि जो उम्मीदवार थीं, उन्हें मतदाता नकार चुके थे।किन्हीं संदर्भों में यह प्रदेश की राजनीति में पुरुषवादी वर्चस्व का चरम दौर कहा जा सकता है, जबकि उन चुनावोंमें राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों पर एक महिला (इंदिरा गांधी) का प्रभाव था।दिल तोड़ दिए दो दौर1971 में पांचवीं लोकसभा का चुनाव हुआ। तब इंदिरा गांधी के रवैये से नाराज कांग्रेसियों का एक धड़ा मोरारजी देसाई के नेतृत्व में कांग्रेस (ओ) के झंडे तले लामबंद था, जबकि 1977 का चुनाव गैर कांग्रेसी गोलबंदी का गवाह रहा है। उन दोनों चुनावों में बिहार राजनीति का मुख्य केंद्र था।पांचवीं लोकसभा के चुनाव में सत्येंद्र नारायण सिन्हा आदि दिग्गज कांगेस (ओ) के प्रतिनिधि थे। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन ने छठी लोकसभा के चुनाव का माहौल तैयार किया था। राजनीति में व्यक्तिवादी वर्चस्व और मूल अधिकारों पर अंकुश (आपात काल), दोनों परिस्थितियों के खिलाफ आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी काबिले-गौर रही, लेकिन चुनाव के मोर्चे पर वे धराशायी हो गईं।अहम वजह जातीय (लैंगिक) चेतना और एकजुटता की कमी रही। उस दौर में नारी सशक्तीकरण कोई मुद्दा नहीं था और घरेलू दहलीज से सियासी दयार तक महिलाओं की आमदरफ्त भी कम। राजनीति में अमूमन संप्रभु वर्ग की महिलाएं ही सक्रिय थीं, या फिर सुरक्षित सीटों पर दांव लगाने के लिए हाशिये की आबादी।आशंका के बीच एक उम्मीद: बहरहाल पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस द्वारा 40 प्रतिशत टिकट महिलाओं को दिए जाने के एलान के बाद बिहार में भी ऐसी पहल की उम्मीद कर सकते हैं। ओडिशा में बीजू जनता दल ने 33 प्रतिशत सीटों पर महिला उम्मीदवारों को उतारने की घोषणा की है।ये फैसले महिला आरक्षण विधेयक के लिए एक बार फिर उम्मीद जता रहे। 1996 में पहली बार पेश हुआवह विधेयक राज्यसभा से पारित होकर लोकसभा में अटका हुआ है। शायद राजनीति दलों की इच्छा संसद में महिलाओं को आगे बढ़ाने की नहीं हो और दोष केवल सियासत को ही क्यों, जनता जनार्दन की इच्छा भी तो जरूरी है।कर्नाटक में अगर सौ महिलाओं में से बमुश्किल पांच विजयी होती हैं। पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में यह संख्या क्रमश: 20 और 12 है, जबकि बिहार में ग्यारह। पिछले छह लोकसभा चुनावों के गुणा-गणित के बाद यह पीआरएस का यह आकलन है।Posted By: Kajal Kumari
Source: Dainik Jagran April 02, 2019 09:56 UTC