[जागरण स्पेशल]। जिसे हिंदी को जानने-समझने और सीखने के लिए दुनिया के तमाम देश आतुर हैं, उसी हिंदी को लेकर उसके देश के कुछ हिस्से में ही हिचक दिखाई देना चिंता की बात है। तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था और दुनिया के सबसे बड़े बनते उपभोक्ता बाजार के नाते तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियां कारोबार के लिए भारत का रुख कर रही हैं। वे बड़ा पूंजी निवेश कर रही हैं।यहां कारोबार चलाने के लिए व भाषा की दिक्कत को दूर करने कोर् हिंदी भाषी कर्मचारियों को तवज्जो दे रही हैं। लेकिन हाल में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे में त्रिभाषा फार्मूले के तहर्त हिंदी को अनिवार्य बनाए जाने को लेकर दक्षिण के राज्यों में विरोध शुरू हो गया। ये बात और है कि लोकप्रियता हासिल करने के लिए वे अपने साहित्य में हिंदी पढ़ाने के लिए बेसब्र रहते हैं और अपनी फिल्मों र्को हिंदी में तैयार कराकर करोड़ों के वारे-न्यारे करते हैं। यह दोहरापन इस तथाकथित विरोध को सियासी ठहराने के लिए काफी है।दक्षिण के राज्यों के विरोध में केंद्र सरकार्र हिंदी को मजबूत बनाने के अपने दायित्व से पीछे हटस जाती है तभी तो त्रिभाषा फार्मूले र्से हिंदी की अनिवार्यता को उसे खत्म करना पड़ा। अब सरकार के इस कदम का विरोध भी शुरू हो गया है। पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने के मकसद से नई शिक्षा नीति को तैयार करने वाली कमेटी के दो वरिष्ठ सदस्यों ने बगैर सहमति त्रिभाषा फार्मूले से हिंदी को हटाए जाने का विरोध किया है। ऐसे र्में हिंदी के प्रति दक्षिण राज्यों की इस हिचक की पड़ताल आज सबसे बड़ा मुद्दा है।लोकसभा चुनाव और क्रिकेट से संबंधित अपडेट पाने के लिए डाउनलोड करें जागरण एपPosted By: Neel Rajput
Source: Dainik Jagran June 16, 2019 06:56 UTC