विकेश कुमार बडोलाकिसी व्यक्ति के मानस में ईश्वर के अस्तित्व का भाव कैसे उभरता है, यह प्रश्न आध्यात्मिक-दार्शनिक प्रश्नों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और रुचिकर है। ईश्वर को मानने का भाव-विन्यास तभी स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है, जब मनुष्य अपने जीवन की जटिल परिस्थितियों से घिरकर आत्मविश्वास खोने लगता है। हालांकि ईश्वर को किसी ने नहीं देखा, तब भी उसकी अनेकानेक मान्यताएं प्रस्थापित हैं। मनुष्य एक अदृश्य, अज्ञात और अस्पष्ट शक्ति को अपने जीवन का विराट सहारा कैसे बनाता है? संसार की जटिलताओं, उपेक्षाओं से थका-पराजित मानव ईश्वररूपी आश्चर्य को अपने लिए सब कुछ मानता है, तो क्यों? संसार सदा से परिवर्तनशील रहा है।जानिए क्यों भगवान श्रीकृष्ण ने केवल अर्जुन को ही सुनाई थी गीतावेद-पुराणों के अनुसार जगत के अभ्युदय के साथ ही सत, त्रेता, द्वापर और कलयुग का समय संसार से जुड़ा। इन कालखंडों में विभिन्न सामाजिक परिस्थितियां रहीं और अब भी हैं। इन्हीं के अनुसार मनुष्य जीवन में दुख-सुख प्रकट होता है। वर्तमान, जिसे कलयुग कहा जाता है, उसमें ईश्वर के व्यवहार की अवस्थाएं- प्रेम, मैत्री भाव, बंधुत्व, आदर्श, संतोष, सादगी, सज्जनता और प्रकृति-सभी को मनुष्य भूलता जा रहा है। मानव की मानव के लिए एक नैसर्गिक आवश्यकता क्षीण होती जा रही है।ऐसी अवस्था में मनुष्य जिस स्वानुभूत चेतना को अपना साथी मानेगा, निश्चित ही वहीं से, उसी अवस्था से ‘प्रभु’ का विन्यास उभरेगा, वहीं से परमात्मा की शक्ति जागेगी। ऐसे में मनुष्य स्वयं को संभालने के लिए एक विचार उत्पन्न करेगा। सदगति के लिए अपनी चेतना का विस्तार करेगा। उसमें प्रेम और संवेदना की बढ़ोत्तरी होगी। उसमें शांत रहकर वसंत की तरह प्राणियों की सेवा का भाव मौजूद होगा। उसे सुबह को सुबह और रात को रात की तरह आत्मसात करने की प्रेरणा प्राप्त होगी। इन परिस्थितियों में ईश्वर का ध्यान करने वालों को एक आत्मिक संबल जरूर मिलता है और इसी की मदद से वे कलियुग के दुखों, कष्टों व भ्रमों से दूर रहते हैं। आमतौर पर सुखी क्षणों में मनुष्य अपनी पहचान नहीं कर पाता। उसे सांसारिक विद्रूपताओं से घिरकर ही अपनी, संबंधित मनुष्यों और हालात की सही जानकारी हो पाती है। इन हालात से परेशान मनुष्य अपने जीवन के लिए जब कोई भरोसे का शख्स नहीं ढूंढ़ पाता, तो उसे एक ‘अज्ञात’ की शरण में जाने की जिज्ञासा होती है। तब वह संसार-निर्माता का ध्यान करता है। उसके विचारों में स्वाभाविक रूप से ये सवाल उठते हैं कि कोई न कोई, कहीं न कहीं तो जरूर है जिसके प्रभाव से संपूर्ण संसार चल रहा है।धर्म के नाम पर लूट-पाट और अन्याय करने वालों को ऐसा हुआ हश्रवह आत्मा में स्वीकार करता है कि जब ईश्वर है, तब ही तो जीवन-प्राण हैं, हवा की सरसराहटें हैं, विशाल पृथ्वी व सुंदर विस्तृत आसमान है। वह सोचता है कि अनेक क्रियाएं-प्रक्रियाएं अगर हो रही हैं, तो इनका एक प्रमुख कारक-संचालक तो अवश्य होगा। बस इसी समय से समस्याग्रस्त मनुष्य भगवान की भावना में स्थिर हो, उसकी शरण में चला जाता है। वह संपूर्ण जग को चलाने वाले के प्रति अपनी अनुभव की हुई चेतना पाता है, जिसकी अनंत शक्तियों से उसे समस्याओं के मध्य सकारात्मक विचार करने की लगातार प्रेरणा मिलने लगती है। फलस्वरूप वह एक अडिग संकल्प करता है। वह प्रतिकूल स्थितियों को अनुकूल बनाने के काम में लग जाता है।
Source: Navbharat Times September 14, 2020 03:45 UTC