उन दिनों देश भर में आजादी का आंदोलन जोरों पर था। अंग्रेज आजादी के परवानों को कोड़ों से लहूलुहान कर देते, मगर खून के हर कतरे के साथ आजादी की उम्मीद दोबाला होती जाती। उस समय चंद्रशेखर आजाद बनारस स्थित संस्कृत विद्यापीठ में पढ़ते थे। तब उनकी उम्र लगभग 14-15 वर्ष की रही होगी, लेकिन तभी से उनके दिल में देश को आजाद कराने की आग जलने लगी थी और वे राजनीतिक बैठकों में शामिल होने लगे थे।असहयोग आंदोलन के दौरान कांग्रेस ने एक नोटिस छपवाया, जिसे पुलिस की नजरों से बचकर पूरे देश में चिपकाना था। इसके लिए बनारस में बैठक हुई। बैठक में उसी नोटिस की एक प्रति आजाद को देकर पूछा गया कि क्या वे इसे पुलिस कोतवाली के सामने बिजली के खंबे पर चिपका सकते हैं? आजाद ने नोटिस लेकर पढ़ा और बोले, ‘क्यों नहीं! यह कौन सी बड़ी बात है!’ आजाद ने नोटिस की छपाई की ओर चारों किनारों पर जरा-जरा सी लेई लगाकर उस नोटिस को अपनी पीठ पर चिपका लिया, और नोटिस के दूसरी ओर अच्छी तरह से लेई लगवा ली। फिर वेश बदलकर चल दिए नोटिस चिपकाने।आजाद पुलिस कोतवाली के पास पहुंचे तो वहां एक सिपाही खड़ा था। वहां वे खंबे से सटकर खड़े हुए और उस सिपाही से बात करने लगे। बात करते-करते उन्होंने पीठ पर चिपके नोटिस को खंबे पर अच्छे से चिपका दिया और सिपाही को राम-राम करके चल दिए। थोड़ी देर बाद वहां आते-जाते लोगों की नजर खंबे पर पड़ी, तो लोग उसे पढ़ने लगे। थोड़ी देर में नोटिस की बात शहर में जंगल की आग की तरह फैल गई। सिपाही को माजरा समझ में आया, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। सिपाही ने हुलिया बताकर कई और सिपाहियों को आजाद को पकड़ने के लिए दौड़ाया, मगर आजाद कहां हाथ आते। वे तो चंद्रशेखर ‘आजाद’ थे।संकलन : रमेश जैन
Source: Navbharat Times October 19, 2020 06:11 UTC