परमात्‍मा को प्राप्‍त करना है तो इस बात को गलती से भी न भूलें - News Summed Up

परमात्‍मा को प्राप्‍त करना है तो इस बात को गलती से भी न भूलें


निर्मल जैनहर घर में एक कमरा कम है। हर तिजोरी में एक रुपया कम है। यह कम होने की सोच अगर उन लोगों की है जिनके सिर पर छत नहीं हैं, मौसम की मार से बचने के लिए तन पर कपड़े नहीं हैं, पेट भरने को रोटी नहीं है, पौष्टिक आहार नहीं है, तब तो इसका कुछ औचित्य बनता है। लेकिन कम होने का यह विचार जब उन लोगों के मन में उपजने लगता है, जो छोटी कॉलोनी के छोटे से फ्लैट से ऊबकर बड़ी कॉलोनी में सेंट्रली-एयर कंडीशंड भव्य कोठियों में जाने की सोचते हैं, तब यह संपूर्ण मानवता और विश्व-शांति के प्रति अपराध-बोध कराता है।अतृप्त इच्छाएं अतिरिक्त धन जुटाने के लिए उकसाती हैं। इसके लिए हम सामाजिक मर्यादा और नैतिकता को भी विस्मृत कर देते हैं। धन के लिए अंतहीन दौड़ में स्वास्थ्य, परिवार, सामाजिक शिष्टाचार सब-कुछ पीछे छूटने लगते हैं। आत्मीय संबंधों में खटास आ जाती है। जरूरतों की सीमाएं लांघकर सुविधाओं, विलासिताओं की कामनाओं से न जाने कितनों की आवश्यक जरूरतें आधी-अधूरी रह जाती हैं। असमानता और अभाव की इस पीड़ा से उपजा उनका असंतोष और आक्रोश हिंसा और आतंक में बदलकर सारी व्यवस्था को उथल-पुथल कर देता है। सुविधाओं के अतिरेक और विलासिताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का असीम दोहन, वनों का विनाश, भूमि से खनिज प्राप्त करने को उसका सीमा रहित उत्खनन होने लगता है। इससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाता है। परिणाम होता है अनियंत्रित मौसम, अति सूखा, अतिवृष्टि, बाढ़, भू-स्खलन, भूचाल, सुनामी, कैटरीना जैसी आपदाएं।कुछ कम को पूरा करने की लालसा केवल कुछ व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं रही है। राष्ट्रों में भी यह मनोवृत्ति बढ़ती जा रही है। उन्हें भी अपना देश, अपनी सीमाएं, अपना व्यापार, अपना निवेश कम लगने लगा है। इसी कमी को पूरा करने के लिए पड़ोसी देशों की सीमाओं पर अतिक्रमण उनके आर्थिक व्यापारिक, साम्राज्य को समेटने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। परिणाम निकलता है कि जो धन जन-हितकारी, कल्याणकारी योजनाओं में खर्च होना था, वह सुरक्षा व्यवस्था की बलि चढ़ जाता है। बहुत कुछ होते हुए भी कुछ कम होने की सोच संपूर्ण मानवता के लिए बड़ी घातक सोच बनती जा रही है। कामना की पूर्ति होती है तो बार-बार उठती है। अतृप्त रहती है तो तृप्त होने के साधन जुटाने में सब-कुछ अस्त-व्यस्त कर देती है। इसलिए कामना की पूर्ति-अपूर्ति नहीं, निवृत्ति होनी चाहिए। जो मिला है, उसका संतोष के साथ उपभोग करें और अपनी थाली में इतने पकवान न संजोएं कि पड़ोसी की थाली में रोटियां कम होने लगें। महावीर ने कहा है कि सदैव ध्यान रहे कि प्रकृति के संसाधन हमारे अकेले के लिए ही नहीं है, उन पर ब्रह्मांड के सभी जीवों का समान अधिकार है।सुविधाओं, विलासिताओं और पदार्थों के सुख से हम इतनी निकटता न बना लें कि वह शाश्वत सुख, जो हमारा लक्ष्य है, उससे दूरी बढ़ जाए। इसलिए कि इस दूरी का जब तक हमें एहसास होता है, तब तक फासला बहुत बढ़ जाता है और समय बहुत कम रह जाता है। चांदी के चंद टुकड़ों की चाहत जब तक नहीं मिटेगी और इसकी कमी सालती रहेगी, उसे पूरा करने की लालसा जीवित रहेगी, तब तक परमात्मा के प्रति सच्चा प्रेम जागृत ही नहीं होगा। अंतर में पदार्थों का इतना अंबार इकट्ठा होता जाएगा कि उस परम-आत्मा के लिए कोई कोना नहीं बचेगा।


Source: Navbharat Times September 15, 2020 05:03 UTC



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