जान‍िए क्‍यों कहा गया है क‍ि सुख और दु:ख दोनों ही अन‍िवार्य हैं? - News Summed Up

जान‍िए क्‍यों कहा गया है क‍ि सुख और दु:ख दोनों ही अन‍िवार्य हैं?


संजय तेवतियाआनंद एक ऐसी मानसिक अवस्था है, जिसे मनुष्य और दूसरे सचेत प्राणी सकारात्मकता, मजे और चाहने लायक वस्तु के रूप में अनुभव करते हैं। जीवन का सार तो इसकी स्थायी अवस्था में है, जो बिना रुके लगातार आता रहता है। परमज्ञानी लोग इसकी स्थायी अवस्था की तलाश में रहते हैं और इसे प्राप्त भी कर लेते हैं। जबकि अज्ञानी लोग इसकी अस्थायी अवस्था प्राप्त करके इतिश्री मान लेते हैं। इसकी स्थायी अवस्था प्रभु भक्ति, अध्यात्म और प्रभु की बनाई चीजों जैसे प्रकृति, झरने, पहाड़, जीव-जंतु, पक्षियों और मानव जाति से प्रेम करने और इनकी सेवा से ही प्राप्त हो सकती है और यह कभी न खत्म होने वाली अवस्था होती है।आध्यात्मिक गुरु, योगी और संत परमहंस योगानंद के अनुसार मानवता ‘कुछ और’ की शाश्वत खोज में लगी है और उसे उम्मीद है यह उसे पूर्ण और कभी न खत्म होने वाला आनंद देगी। लेकिन जिन व्यक्तिगत आत्माओं ने ईश्वर को खोजा और उसे पा लिया है, उनकी खोज पूरी हो चुकी है। ईश्वर को पाना ही जीवन का उद्देश्य है। इस पर सभी लोग शायद ही विश्वास करें, लेकिन इस विचार को सभी स्वीकार कर सकते हैं कि हमारे जीवन का उद्देश्य प्रसन्नता की प्राप्ति है। ईश्वर ही परमानंद है, वह प्रेम है। वह ऐसी खुशी है जो आपकी आत्मा से कभी अलग नहीं होगी। प्रसन्नता के स्तर में अंतर भले हो, लेकिन इसका सत्व अपरिवर्तनीय है। यह वो भीतरी अनुभव है, जिसकी खोज सभी करते हैं। प्रभु स्थायी और हमेशा नया रहने वाली प्रसन्नता है। अपने अंदर इस खुशी को प्राप्त कर आप महसूस करेंगे कि आपने सब कुछ पा लिया है। ईश्वर की कृपा सीमाहीन, कभी खत्म न होने वाली और स्थायी होती है। ईश्वर की गरिमा और महिमा ऐसी है कि जब आप इस चेतनावस्था में रहेंगे, तब शरीर और मस्तिष्क कुछ भी आपका ध्यान भटका नहीं सकेगा और वह आपको उन सब चीजों की व्याख्या करके बताएगा, जो आप अब तक नहीं समझ पाए थे। उन सब चीजों के बारे में आपको पता चलेगा, जो आप जानना चाहते हैं, जैसे सुख-दुख, गलत-सही, स्थायी और अस्थायी प्रसन्नता आदि।ध्यान एक ऐसी प्रक्रिया है, जो आत्मा को परमात्मा से जोड़ती है। ध्यान के दौरान व्यक्ति को असीम खुशी मिलती है। ध्यान का सुख परिपूर्ण होता है। जिन्होंने सच्चे ध्यान की चुप्पी का अनुभव नहीं किया है, वे नहीं जानते कि सच्चा हर्ष क्या है। जब आपका मस्तिष्क और आपकी सोच अंतर्मुखी होगी, तब आप ईश्वरीय मेहरबानी को महसूस करना शुरू करेंगे। इंद्रियों का हर्ष ज्यादा देर नहीं टिकता, लेकिन ईश्वरीय सुख शाश्वत होता है, यह अतुलनीय है। जब व्यक्ति दुनिया छोड़कर जाता है, तब उसे अपने सारे कामकाज स्थगित कर देने पड़ते हैं। फिर उन क्रियाकलापों को इतना अधिक महत्व क्यों देते हैं, जिनमें ईश्वर के बारे में सोचने का समय भी आपको नहीं मिलता है। आज जो भी करें, हर्षपूर्वक करें और उसमें मानवता की सेवा जुड़ी होनी चाहिए।हमें अपने हर कार्य को आध्यात्मिकता से जोड़ना होगा। भगवद्गीता सांसारिक सुख को मना नहीं करती है। इसके अनुसार सुख और दुख तो दोनों अनिवार्य हैं। जब मस्तिष्क और इंद्रियां एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं, तब प्रसन्नता और दुख अनिवार्य रूप से उत्पन्न होते हैं। भगवद्गीता व्यक्ति को स्थायी आनंद की खोज के बारे में बताती है। स्थायी प्रसन्नता व्यक्ति के अंदर होती है, बाहरी वातावरण में नहीं।


Source: Navbharat Times August 26, 2020 06:22 UTC



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