संत राजिन्दर सिंह जी महाराजप्रकृति का वह आदर्श संतुलन जिसने लाखों-करोड़ों साल से हमारे ग्रह पर जीवन को बनाए रखा है, आज तकनीकी प्रगति के कारण खतरे में आ चुका है। हर रोज हमें मीडिया में पर्यावरण के लिए किसी नए खतरे का समाचार पढ़ने को मिल जाता है। जिस हवा में हम सांस लेते हैं, जो पानी हम पीते हैं और जिस जमीन पर हम अपना अन्न उगाते हैं, ये धीरे-धीरे दूषित होते जा रहे हैं। आज पर्यावरण संरक्षण हमारे विश्व के अहम मुद्दों में से एक बन चुका है। इस अध्ययन को हम चार प्रमुख क्षेत्रों में बांट सकते हैं- प्रकृति के चक्रों को समझना, प्रदूषण के प्रभावों के बारे में जानना, प्रकृति को उसकी मौलिक सुंदर और निर्मल अवस्था में वापस लाना और ऐसे तरीकों को प्रयोग में लाना जो भविष्य में भी प्रकृति की स्वच्छ निर्मलता को संजोए रखें।मैं यहां ‘आत्मा के पर्यावरण’ के बारे में बात करना चाहूंगा। प्रकृति के समान ही हमारी आत्मा पर भी कुछ आधारभूत नियम और चक्र लागू होते हैं। हम जान सकते हैं कि हमारे बाहरी संसार को प्रभावित करने वाले प्रदूषण के साथ-साथ, एक तरह का प्रदूषण वह भी है जो हमारी आत्मा को प्रभावित करता है। जिस प्रकार हीरा धरती की गहराई में दबा होता है या पृथ्वी की ऊपरी पर्त के काफी नीचे तेल मौजूद होता है, उसी प्रकार हमारा सबसे कीमती खजाना हमारी आत्मा भी मन, माया और भ्रम की पर्तों के नीचे दबी हुई है।बाहरी और आंतरिक पर्यावरण का दूसरा पहलू है प्रदूषण। हवा और पानी के समान ही आत्मा की भी अपनी नैसर्गिक सुंदरता है। लाखों-करोड़ों सालों से पृथ्वी पर स्वच्छ हवा और ताजा बहता हुआ पानी उपलब्ध रहा है। लेकिन लगातार दोहन ने हमने इन प्राकृतिक संसाधनों को दूषित कर दिया है। सांसारिक इच्छाएं और ऐंद्रिक सुख हमारी पवित्र आत्मा के ऊपर धूल की तरह जम गए हैं। तीसरा पहलू है प्रकृति और आत्मा को उनकी मौलिक सुंदर और निर्मल अवस्था में वापस लाना। पर्यावरण-विज्ञानी प्रदूषित हवा और जल को साफ करते हैं तथा कैद पशु-पक्षियों को मुक्त कराते हैं। इसी प्रकार हमारी आत्मा के लिए भी पर्यावरण-विज्ञानी मौजूद हैं। ये वे लोग हैं जिन्होंने स्वयं आत्मा की नैसर्गिक सुंदरता का अनुभव किया है और जो जानते हैं कि कौन-कौन से प्रदूषकों ने हमारी स्वच्छ आत्मा के ऊपर गंदगी की पर्तें जमा कर दी हैं। इन दिव्यपर्यावरण-विज्ञानियों को संत, सतगुरु, आध्यात्मिक महापुरुष आदि नामों से पुकारा जाता है। ये वे लोग होते हैं जो उन सारे प्रदूषकों से मुक्त होते हैं जो आत्मा को गंदा करते हैं। एक पूर्ण सतगुरु हमें हमारे सच्चे स्वरूप से अवगत कराता है।चौथा पहलू है ऐसे तरीकों को प्रयोग में लाना जो भविष्य में भी प्रकृति और आत्मा की स्वच्छ निर्मलता को संजोए रखें। समर्पित पर्यावरण-विज्ञानी पर्यावरण की मौलिक सुंदरता और निर्मलता को संरक्षित रखना अपना कर्तव्य समझते हैं। वे संवेदनशील होते हैं। वे ऐसा कोई भी परिवर्तन नहीं लाना चाहते जो प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ दे। इसी प्रकार, जब हम आध्यात्मिक रूप से तरक्की करने लगते हैं, तो हम संवेदनशीलता के साथ जीवन गुजारते हैं। तब हमें ढकने वाले सभी प्रदूषक और कमियां-कमजोरियां हमारे अंदर से मिट जाती हैं और हमारी आत्मा दोबारा अपनी मौलिक सुंदर व निर्मल अवस्था में पहुंच जाती है।
Source: Navbharat Times March 01, 2021 09:22 UTC