reason behind protest against sc st act: uppercaste mobilisation against sc st act is endeaver get remote control of politics - SC/ST ऐक्ट: सियासत का रिमोट कंट्रोल लेने के लिए हो रही है सवर्णों की गोल - News Summed Up

reason behind protest against sc st act: uppercaste mobilisation against sc st act is endeaver get remote control of politics - SC/ST ऐक्ट: सियासत का रिमोट कंट्रोल लेने के लिए हो रही है सवर्णों की गोल


इस वक्त एससी-एसटी कानून के खिलाफ सवर्णों की जो नाराजगी देखी जा रही है, उसका सबब कुछ और है। दरअसल, भारतीय राजनीति में एक समय वह भी रहा है, जब सवर्णों को अपने साथ रख लेने भर से चुनावी रुख तय हो जाया करते थे। यह माना जाता था कि समाज की दिशा सवर्णों की ओर से ही तय होती है। इसी के मद्देनजर राजनीतिक दलों के केंद्र में सवर्ण ही हुआ करते थे लेकिन 90 के दशक में मंडल कमिशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद समाज में जो पाला बंटा उसने भारतीय राजनीति के परिदृश्य को भी बदल दिया। राजनीति दलित-पिछड़ों के इर्द-गिर्द घूमने लगी और सवर्ण हाशिये पर होते चले गए। यूपी-बिहार जैसे बड़े राज्यों में तो दलित-बैकवर्ड की उभरी लीडरशिप ने सवर्णों के राजनीतिक नेतृत्व को भी पीछे धकेल दिया। यहां तक कि बीजेपी जिसे कि सवर्णों की पार्टी माना जाता रहा, उसने भी वक्त की नजाकत समझते हुए अपने को दलितों-पिछड़ों की पार्टी के रूप में स्थापित करने की जुगत शुरू कर दी। सियासत में कम होती पूछ के कारण सवर्णों के भीतर कमतरी का अहसास और गुस्सा पनपता चला गया।सवर्णों की नाराजगी का असर चुनावी नतीजों पर पड़ना तय माना जा रहा है। फिलहाल इससे बीजेपी को ज्यादा नुकसान होने की बात कही जा रही है क्योंकि सवर्णों के वोटों का बड़ा हिस्सा बीजेपी को ही मिलता रहा है। बीजेपी इस बात को समझ रही है लेकिन उसे यह भी पता है कि सवर्णों के पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं। राज्यों के ज्यादातर इलाकाई दलों की छवि 'ऐंटी-अपरकास्ट' की बनी हुई है। अगर नोटा कैंपेन परवान चढ़ा तो बीजेपी को नुकसान हो सकता है। इसी वजह से बीजेपी के रणनीतिकारों की पुरजोर कोशिश इस अभियान को निष्प्रभावी बनाने की है।मंडल ने ही राजनीतिक लड़ाई को 85 बनाम 15 की भी शक्ल दे दी। 85 में दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यक शामिल हैं तो 15 में अपर कास्ट। कहा यह गया कि देश की सत्ता पर 85 फीसदी आबादी का राज होना चाहिए, न कि 15 का। यह एक तरह से अपर कास्ट के हाथों से राजनीतिक ताकत छीनने का आह्वान था। कांशीराम ने 85 प्रतिशत हिस्से को ही 'बहुजन समाज' का नाम दिया। राजनीति में बहुजन समाज की हिस्सेदारी बढ़ाने को ही उन्होंने दो नारे दिए थे - 'जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी' और 'वोट हमारा - राज तुम्हारा, नहीं चलेगा - नहीं चलेगा'। इन नारों के जरिए उनकी कोशिश बहुजन समाज को जागरूक करने की थी। इन नारों का असर भी दिखने को मिला। सवर्णों के मुकाबिल दलित-पिछड़े बड़ी ताकत के रूप में उभरे। इसी ताकत ने दलित-पिछड़े वर्ग से आने वाले मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, कल्याण सिंह, मायावती, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान जैसे नेताओं को नई ऊंचाई दी। साथ ही एसपी, बीएसपी, आरजेडी, जेडीयू, लोकजनशक्ति जैसे दलों को भारतीय राजनीति का अपरिहार्य बना दिया। मायावती अपने को अगर 'दलित की बेटी' कहने में गर्व का अनुभव करती रहीं तो लालू स्वयं को उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाला बताते रहे, जिसे 'बड़का जाति' के लोगों के सामने बराबरी से बैठने का हक भी हासिल नहीं था।दरअसल इस वक्त एससी-एसटी ऐक्ट को लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों में सवर्णों की जो नाराजगी दिख रही है, वह महज इस कानून को लेकर ही नहीं है। दरअसल, यह कानून तो उनके भीतर के गुस्से को बाहर निकालने का जरिया बन गया है। एक तरह से उन्हें गोलबंदी का मौका मिला है और उन्हें ऐसा लगता है कि गोलबंद होकर ही सियासत में अपने खोए वजूद को फिर से हासिल किया जा सकता है। एससी-एसटी ऐक्ट और जातीय आधार पर आरक्षण के खिलाफ आंदोलन चला रहे अपर कास्ट नेता अवधेश सिंह 'एनबीटी' से बातचीत में कहते भी हैं, 'अगर राजनीतिक दलों को यह लगने लगा है कि अपर कास्ट के लोगों की अब कोई राजनीतिक अहमियत नहीं रह गई है तो यह उनकी बड़ी चूक है। 2019 के लोकसभा चुनाव में अपर कास्ट के लोग अपनी ताकत का अहसास करा देंगे।' वह यह भी मानते हैं, 'अपनी ताकत का अहसास कराने के लिए अपर कास्ट के लोगों को गोलबंद तो होना ही होगा।' सोशल मीडिया के जरिए जो 'नोटा कैंपेन' चल रहा है, उसके पीछे सवर्णों की ही नाराजगी मानी जा रही है। 'ताकत का अहसास' कराने की ही गरज से यह अभियान चलाया जा रहा है।


Source: Navbharat Times October 12, 2018 04:07 UTC



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