[सुशील कुमार सिंह]। श्रीलंका के नए राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे के सत्तासीन होने के बाद भले ही भारत का दृष्टिकोण न बदले, मगर यह बात दावे से नहीं कही जा सकती कि नई सरकार के आने से श्रीलंका का भारत के प्रति नजरिया नहीं बदलेगा। राजपक्षे ने इसी वादे के साथ श्रीलंकाई मतदाताओं से मत लिया है कि वे सत्ता में आने पर चीन के साथ रिश्तों को और मजबूत बनाएंगे।चीन की योजना में श्रीलंका की नीतियों का योगदाननवनियुक्त गोतबाया साल 2005 से 2015 तक श्रीलंका के राष्ट्रपति रहे महेंद्र राजपक्षे के भाई हैं। जिन्हें चीन से बेहतर संबंधों के लिए जाना और समझा जाता है। इन्हीं के कार्यकाल में चीन को हंबनटोटा बंदरगाह और एयरपोर्ट के निर्माण का ठेका दिया गया था। दूसरे शब्दों में कहें तो हिंद महासागर में चीन की विस्तारवादी नीति से इनके विचार एकरूपता लिए हुए थे। गौरतलब है कि हिंद महासागर को चारों तरफ से घेरने की चीन की योजना में श्रीलंका की नीतियों का कहीं अधिक योगदान है।भारत-श्रीलंका के संबंध एक बार फिर नए मोड़ लेंगेजाहिर है एक बार फिर श्रीलंका में पांच साल राजपक्षे का परिवार शासन करेगा और पूरी संभावना है कि प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे पद छोड़ेंगे और कयास यह भी है कि राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे अपने बड़े भाई महेंद्र राजपक्षे को नया प्रधानमंत्री बनाएंगे। इससे साफ है कि भारत-श्रीलंका के संबंध एक बार फिर नए मोड़ लेंगे और श्रीलंका का चीन के साथ प्रसारवादी दृष्टिकोण पुन: अग्रसर होगा। हालांकि मद्रास विश्वविद्यालय से मास्टर डिग्री कर चुके गोतबाया का और कई मामलों में भारत से पुराना नाता है।श्रीलंकाई नीतियों पर भारत की नजर रहेगीयूनाईटेड नेशनल पार्टी के उम्मीदवार सजित प्रेमदासा को 13 लाख वोटों से हार मिली है जो यह दर्शाता है कि श्रीलंका में बदलाव को लेकर मतदाता कितने आतुर थे। कमोबेश यह समझना सही रहेगा कि प्रेमदासा ने तर्कसंगत व्यापार नीति के साथ मैत्रीपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संबंध विकसित करने का वादा किया था जो राजपक्षे के वादे से अलग था, लेकिन श्रीलंका के मतदाताओं ने उनका साथ नहीं दिया। वैसे कुल 35 उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे। हालांकि राजपक्षे को 52.25 फीसद ही मत मिले हैं, मगर प्रेमदासा बड़े फासले के साथ 41.99 प्रतिशत मत पर सिमट गए। इसमें कोई दुविधा नहीं कि इस बदलाव को ध्यान में रखते हुए श्रीलंकाई नीतियों पर भारत की नजर रहेगी। श्रीलंका में आया नया परिवर्तन भारत और चीन, दोनों देशों के लिए रणनीतिक और कूटनीतिक नजरिये से बेहद अहम है।हिंद महासागर को लेकर भारत की चिंताजाहिर है कि श्रीलंका के चुनावी नतीजों पर दोनों देशों की पैनी निगाहें थीं। व्यापारिक दृष्टि से ही नहीं, दक्षिण एशिया पर चीन का विस्तारवादी दृष्टिकोण भी भारत के लिए मुसीबत का सबब रहा है और यह अभी भी बरकरार है। दो करोड़ से थोड़े ही अधिक आबादी वाले श्रीलंका में डेढ़ करोड़ से थोड़े ज्यादा मतदाता हैं जो न केवल अपने राज-काज चलाने वालों को चुनते हैं, बल्कि भारत और चीन की भी चिंताओं को बढ़ा देते हैं। हालांकि इस बार चिंता चीन के लिए नहीं, भारत के लिए बढ़ी दिखाई देती है। भारत की चिंता यह रही है कि हिंद महासागर मसलन श्रीलंका और मालदीव में चीन का वर्चस्व बढ़ता है तो इससे भारत के साथ उनके द्विपक्षीय संबंधों पर ही प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि दक्षिण एशियाई देशों का समूह सार्क भी उलझन में पड़ जाता है।राजपक्षे परिवार के रुख को लेकर भारत की चिंताएं बढ़ीचीन ने कोलंबो बंदरगाह को विकसित करने में बड़ी भूमिका निभाई है, जबकि भारत ने कोलंबो बंदरगाह पर ईस्टर्न कंटेनर टर्मिनल बनाने को लेकर श्रीलंका के साथ एक समझौता किया है। इसके चलते भारत आने वाला बहुत सारा सामान कोलंबो बंदरगाह से होकर आता है। ऐसे में श्रीलंका में कोई भी सत्ता में आए भारत उससे सहयोग लेना चाहेगा, लेकिन राजपक्षे परिवार के रुख को लेकर भारत की चिंताएं बढ़ रही हैं। वैसे एक दौर ऐसा भी था जब दोनों देशों के बीच रिश्ते काफी नाजुक अवस्था में थे।गृहयुद्ध के बाद से श्रीलंका के विदेशी मामलों में भारत की अहमियत कम हुई है। श्रीलंकाई तमिलों और भारत के बीच संबंध गृहयुद्ध के बाद अमूमन कमजोर हुए हैं। बहुत से तमिलों को लगता है कि भारत ने उन्हें धोखा दिया है। वहां के सिंहली भी भारत के साथ बहुत करीबी नाता नहीं महसूस करते। इतना ही नहीं, वे भारत को एक खतरे के रूप में भी देखते हैं। जबकि वे यह जानते ही नहीं कि जिस खामोशी के साथ चीन उनकी गर्दन दबोच रहा है, भारत उतनी ही पारदर्शिता के साथ उनका विनम्र पड़ोसी और सहयोगी है। गौरतलब है कि चीन श्रीलंका में निवेश बढ़ाए हुए है और उसे कर्ज तले भी दबा रहा है।तमिल और सिंहली का मामलाश्रीलंका बीते तीन दशकों से राजनीतिक अस्थिरता से भी जूझ रहा है, जिसके चलते वहां का समाज अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में कब विभाजित हो गया पता ही नहीं चला। तमिल और सिंहली का मामला बरसों से विवाद में है। इसके कारण भी भारत के साथ उसके द्विपक्षीय संबंध उतार-चढ़ाव लिए रहे और यह नेहरू काल से लेकर मोदी शासनकाल तक देखा जा सकता है। इसी साल जब 21 अप्रैल को श्रीलंका के तीन प्रमुख शहरों कोलंबो, निगंबो और बट्टिकलोवा में आतंकी हमले हुए, जिसमें दो सौ से अधिक श्रीलंकाई नागरिकों के साथ कई भारतीय नागरिक मारे गए और सैकड़ों घायल भी हुए तो भारत के माथे पर चिंता की लकीरें उभरी थीं। इसका प्रमुख कारण दक्षिण एशिया में भारत द्वारा लाई जाने वाली शांति की पहल को झटका था।प्रधानमंत्री मोदी ने पड़ोसी धर्म निभाते हुए आतंकी हमले के बाद श्रीलंका का जून 2019 में दौरा किया था और एक आशावादी दृष्टिकोण के साथ श्रीलंका की हिम्मत बढ़ाई थी। हालांकि वे 2015 और 2017 में भी श्रीलंका की यात्रा कर चुके हैं जो किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री का 27 साल बाद किया गया दौरा था। मोदी की श्रीलंका यात्रा ने कई द्विपक्षीय समझौतों के लिए जमीन बनाई है और काफी हद तक आपसी विश्वास को बढ़ाया है। मगर अब यह कितना प्रासंगिक रहेगा, कहना कठिन है। ऐसा इसलिए, क्योंकि मौज
Source: Dainik Jagran November 19, 2019 04:32 UTC